Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट. १६)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।२२।।

यह पुरुष प्रकृति (शरीर) के साथ सम्बन्ध रखने से उपद्रष्टा, उसके साथ मिलकर सम्मति, अनुमति देनेसे अनुमन्ता, अपनेको उसका भरणपोषण करनेवाला माननेसे भर्ता, उसके सङ्गसे सुखदुःख भोगनेसे भोक्ता, और अपनेको उसका स्वामी माननेसे महेश्वर बन जाता है। परन्तु स्वरूपसे यह पुरुष परमात्मा कहा जाता है। यह देहमें रहता हुआ भी देहसे पर (सम्बन्धरहित) ही है।

व्याख्या—

वास्तवमें पुरुष (चेतन) ‘पर’ ही है; पर अन्यके सम्बन्धसे वह उपद्र्ष्टा, अनुमन्ता आदि बन जाता है । जैसे, मनुष्य पुत्रके सम्बन्धसे ‘पिता’, ‘पिताके सम्बन्धसे ‘पुत्र’, पत्नीके सम्बन्धसे ‘पति’, बहनके सम्बन्धसे ‘भाई’ आदि बन जाता है । ये सम्बन्ध अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं, ममता करनेके लिये नहीं । वास्तविक स्वरूप तो ‘पर’ अर्थात्‌ सम्बन्ध-रहित ही है ।

यहाँ उपद्र्ष्टा, अनुमन्ता आदि अनेक उपाधियोंका तात्पर्य एकतामें है कि चेतन-तत्त्व वास्तवमें एक ही है ।

ॐ तत्सत् !

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