॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्री भगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।५२।।
श्रीभगवान् बोले –
मेरा यह जो रूप तुमने देखा है, इसके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ हैं। इस रूप को देखने के लिये देवता भी नित्य लालायित रहते हैं ।
व्याख्या—
यद्यपि देवाताओं का शरीर दिव्य होता है, तथापि भगवान् का शरीर उससे भी अधिक विलक्षण है । देवताओं का शरीर भौतिक तेजोमय और भगवान् का शरीर चिन्मय, सत्-चित्-आनन्दमय तथा अलौकिक होता है । अतः देवता भी भगवान् को देखने के लिये लालायित रहते हैं । जैसे साधारण लोगों में नये-नये स्थान देखने की रुचि रहती है, ऐसे ही देवताओं में भगवान् को देखने की रुचि तो है, पर प्रेम नहीं है । भगवान् को अनन्यप्रेम से ही देखा जा सकता है ।
ॐ तत्सत् !
श्री भगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।५२।।
श्रीभगवान् बोले –
मेरा यह जो रूप तुमने देखा है, इसके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ हैं। इस रूप को देखने के लिये देवता भी नित्य लालायित रहते हैं ।
व्याख्या—
यद्यपि देवाताओं का शरीर दिव्य होता है, तथापि भगवान् का शरीर उससे भी अधिक विलक्षण है । देवताओं का शरीर भौतिक तेजोमय और भगवान् का शरीर चिन्मय, सत्-चित्-आनन्दमय तथा अलौकिक होता है । अतः देवता भी भगवान् को देखने के लिये लालायित रहते हैं । जैसे साधारण लोगों में नये-नये स्थान देखने की रुचि रहती है, ऐसे ही देवताओं में भगवान् को देखने की रुचि तो है, पर प्रेम नहीं है । भगवान् को अनन्यप्रेम से ही देखा जा सकता है ।
ॐ तत्सत् !
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