Friday, 12 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.२२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
  
  मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्राभूयाय कल्पते ॥२६॥  
 
और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।  
 
व्याख्या- 
भक्ति से साधक जो भी चाहता है, उसी की प्राप्ति हो जाती है। जो साधक मुख्यरूप से ब्रह्म की प्राप्ति अर्थात् मुक्ति, तत्त्वज्ञान चाहता है, उसे भक्ति से ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है; क्योंकि ब्रह्म की प्रतिष्ठा भगवान ही हैं। ब्रह्म समग्र भगवान का ही एक अंग (स्वरूप) है। तेरहवें अध्याय के दसवें श्लोक में भी भक्ति को ज्ञानप्राप्ति का साधन बताया गया है।  श्रीमद्भागवत महापुराण में सगुण की उपासना को निर्गुण (सत्वादि गुणों से अतीत) बताया गया है; जैसे-‘मन्निकेतं तु निर्गुणम्’‘मत्सेवायां तु निर्गुणाआदि। इसलिये सगुणोपासक भक्त तीनों गुणों से अतीत हो जाता है।  सगुण भगवान भी गुणों के आश्रित नहीं हैं, प्रत्युत गुण उनके आश्रित हैं। जो सत्व-रज-तम गुणों के वश में है, उसका नाम ‘सगुण’ नहीं है, प्रत्युत जिसमें असीम ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, औदार्य आदि अनन्त दिव्य गुण नित्य विद्यमान रहते हैं, उसका नाम ‘सगुण’ है। भगवान के द्वारा सात्विक, राजस अथवा मासम क्रियाएँ तो हो सकती है, पर वे उन गुणों के वश में नहीं होते। भगवान की तरफ चलने से भक्त स्वतः और सुगमता से गुणातीत हो जाता है। इतना ही नहीं, उसे भगवान के समग्र रूप का भी ज्ञान हो जाता है और प्रेम भी प्राप्त हो जाता है।
 
ॐ तत्सत् !

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