॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।८।।
तू मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा इसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा -- इसमें संशय नहीं है।
व्याख्या—
मन-बुद्धि भगवान्की अपरा प्रकृति है (गीता ७ । ४-५ ) । भगवान्की शक्ति होते हुए भी अपरा प्रकृति भगवान्से भिन्न स्वभाववाली (जड़ और परिवर्तनशील) है । परन्तु परा प्रकृति (जीवात्मा) भगवान्से भिन्न स्वभावआली नहीं है । इसलिये वास्तवमें मन-बुद्धि भगवान्में नहीं लग सकते, प्रत्युत जहाँ-जहाँ मन-बुद्धि भगवान्में लगानेकी बात आयी है, वहाँ वास्तवमें स्वयंको ही भगवान्में लगानेकी बात कही गयी है ।
भगवान्में मन-बुद्धि लगानेसे मन-बुद्धि तो नहीं लगते, पर स्वयं लग जाता है-‘निवसिष्यसि मय्येव’ । कारण कि जीवका स्वभाव है कि वह स्वयं वहीं लगता है, जहाँ उसके मन-बुद्धि लगते हैं । जैसे सूई जहाँ जाती है, धागा वहीं जाता है, वैसे ही मन-बुद्धि जहाँ जाते हैं, स्वयं वहीं जाता है । संसारको सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे मन-बुद्धि संसारमें लग गये । संसारमें मन-बुद्धि लगनेसे जीव भी स्वयं संसारमें लग गया । इसलिये जीवको संसारसे हटानेके लिये भगवान् मन-बुद्धिको अपनेमें लगानेकी आज्ञा देते हैं ।
भगवान्में लगानेसे मन-बुद्धि भगवान्में नहीं लगते, प्रत्युत लीन हो जाते हैं; क्योंकि मूलमें अपरा प्रकृति भगवान्का ही स्वभाव है । भगवान्में लीन होनेपर मन-बुद्धिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत केवल भगवान् ही रह जाते हैं ।
पूर्वपक्ष-
मन-बुद्धि तो करण हैं, पर जीव कर्ता है । करण कर्ताके अधीन रहते हैं । जहाँ कर्ता लगेगा, वहीं करण भी लगेंगे । अतः जहाँ करण लगेंगे, वहाँ कर्ता भी लगेगा-ऐसा कहनेका क्या औचित्य है ?
उत्तरपक्ष-
क्रियाकी सिद्धिमें करण अत्यन्त उपकारक होता है-‘साधकतमं करणम्’ (पाणि० अ० १ । ४ । ४२) । जैसे, ‘रामके बाणसे बालि मारा गया’-इस वाक्यमें ‘बाण’ कारण है; क्योंकि बालिके मरनेमें बाण हेतु हुआ, धनुष, प्रत्यंचा, हाथ आदि नहीं । साधकके पास सबसे श्रेष्ठ करण ‘बुद्धि’ है, जिसे वह परमात्मामें लगाता है । उपनिषद्में शरीरको रथ, जीवात्माको रथी, इन्द्रियोंको घोड़े, मनको लगाम और बुद्धिको सारथि कहा गया है-‘बुद्धिं तु सारथिं विद्धि (कठोपनिषद् १ । ३ । ३) । रथ, घोड़े और लगाम तो राजभवनके बाहर ही छूट जाते हैं । राजभवनके भीतर रननिवास तक सारथि जाता है । फिर रथी अकेले रननिवासके भीतर जाता है, सारथि लौट आता है । अतः साधककी बुद्धि परमात्मातक पहुँचती है, पर वह परमात्माको पकड़ नहीं पाती । परमात्मातक स्वयं ही पहुँच पाता है ।
ॐ तत्सत् !
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।८।।
तू मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा इसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा -- इसमें संशय नहीं है।
व्याख्या—
मन-बुद्धि भगवान्की अपरा प्रकृति है (गीता ७ । ४-५ ) । भगवान्की शक्ति होते हुए भी अपरा प्रकृति भगवान्से भिन्न स्वभाववाली (जड़ और परिवर्तनशील) है । परन्तु परा प्रकृति (जीवात्मा) भगवान्से भिन्न स्वभावआली नहीं है । इसलिये वास्तवमें मन-बुद्धि भगवान्में नहीं लग सकते, प्रत्युत जहाँ-जहाँ मन-बुद्धि भगवान्में लगानेकी बात आयी है, वहाँ वास्तवमें स्वयंको ही भगवान्में लगानेकी बात कही गयी है ।
भगवान्में मन-बुद्धि लगानेसे मन-बुद्धि तो नहीं लगते, पर स्वयं लग जाता है-‘निवसिष्यसि मय्येव’ । कारण कि जीवका स्वभाव है कि वह स्वयं वहीं लगता है, जहाँ उसके मन-बुद्धि लगते हैं । जैसे सूई जहाँ जाती है, धागा वहीं जाता है, वैसे ही मन-बुद्धि जहाँ जाते हैं, स्वयं वहीं जाता है । संसारको सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे मन-बुद्धि संसारमें लग गये । संसारमें मन-बुद्धि लगनेसे जीव भी स्वयं संसारमें लग गया । इसलिये जीवको संसारसे हटानेके लिये भगवान् मन-बुद्धिको अपनेमें लगानेकी आज्ञा देते हैं ।
भगवान्में लगानेसे मन-बुद्धि भगवान्में नहीं लगते, प्रत्युत लीन हो जाते हैं; क्योंकि मूलमें अपरा प्रकृति भगवान्का ही स्वभाव है । भगवान्में लीन होनेपर मन-बुद्धिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत केवल भगवान् ही रह जाते हैं ।
पूर्वपक्ष-
मन-बुद्धि तो करण हैं, पर जीव कर्ता है । करण कर्ताके अधीन रहते हैं । जहाँ कर्ता लगेगा, वहीं करण भी लगेंगे । अतः जहाँ करण लगेंगे, वहाँ कर्ता भी लगेगा-ऐसा कहनेका क्या औचित्य है ?
उत्तरपक्ष-
क्रियाकी सिद्धिमें करण अत्यन्त उपकारक होता है-‘साधकतमं करणम्’ (पाणि० अ० १ । ४ । ४२) । जैसे, ‘रामके बाणसे बालि मारा गया’-इस वाक्यमें ‘बाण’ कारण है; क्योंकि बालिके मरनेमें बाण हेतु हुआ, धनुष, प्रत्यंचा, हाथ आदि नहीं । साधकके पास सबसे श्रेष्ठ करण ‘बुद्धि’ है, जिसे वह परमात्मामें लगाता है । उपनिषद्में शरीरको रथ, जीवात्माको रथी, इन्द्रियोंको घोड़े, मनको लगाम और बुद्धिको सारथि कहा गया है-‘बुद्धिं तु सारथिं विद्धि (कठोपनिषद् १ । ३ । ३) । रथ, घोड़े और लगाम तो राजभवनके बाहर ही छूट जाते हैं । राजभवनके भीतर रननिवास तक सारथि जाता है । फिर रथी अकेले रननिवासके भीतर जाता है, सारथि लौट आता है । अतः साधककी बुद्धि परमात्मातक पहुँचती है, पर वह परमात्माको पकड़ नहीं पाती । परमात्मातक स्वयं ही पहुँच पाता है ।
ॐ तत्सत् !
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