Thursday, 11 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.२०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
  
  उदासीनवदासीनो गुणैर्या न विचाल्यते । 
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेग्ङते ॥२३॥  
 
जो उदासीन की तरह स्थित है और जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुणों में बरत रहे हैं- इस भाव से जो (अपने स्वरूप में ही) स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता।  
 
व्याख्या- 
तीन विभाग हैं-‘करना’, ‘होना’ और ‘है’। ‘करना’ होने में और ‘होना’ ‘है’ में बदल जाय तो अहंकार सर्वथा नष्ट हो जाता है। जिसके अन्तःकरण में क्रिया और पदार्थ का महत्व है, ऐसा संसारी मनुष्य मानता है कि मैं क्रिया कर रहा हूँ-‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’[1]। जो कर्ता बनता है, उसे भोक्ता बनना ही पड़ता है। जिसमें विवेक की प्रधानता है, ऐसा साधक तो अनुभव करता है कि क्रिया हो रही है-गुणा गुणेषु वर्तन्ते’[2]अर्थात मैं कुछ भी नहीं करता हूँ- ‘नैव किन्चित्करोमीति’[3]। परन्तु जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है, ऐसा गुणातीत महापुरुष केवल सत्ता तथा ज्ञप्तिमात्र (‘है’) का ही अनुभव करता है- ‘योऽवतिष्ठति नेगते’। वह चिन्मय सत्ता सम्पूर्ण क्रियाओं में ज्यों-की-त्यों परिपूर्ण है। क्रियाओं का तो अन्त हो जाता है, पर चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। महापुरुष की दृष्टि क्रियाओं पर न रहकर स्वतः एकमात्र चिन्मय सत्ता (‘है’)- पर ही रहती है। 

ॐ तत्सत् !

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