Sunday, 7 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.२५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्।।३७।।

हे महात्मन् ! गुरुओंके भी गुरु और ब्रह्मा के भी आदिकर्ता आपके लिये (वे सिद्धगण) नमस्कार क्यों नहीं करें क्योंकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप अक्षरस्वरूप हैं आप सत् भी हैं, असत् भी हैं, और उनसे (सत्-असत् से) परे भी जो कुछ है, वह भी आप ही हैं ।

व्याख्या—

सत्‌ और असत्‌-दोनों सापेक्ष होने से लौकिक हैं और जो इनसे परे है, वह निरपेक्ष होने से अलौकिक है । लौकिक और अलौकिक-दोनों ही परमात्मा के समग्ररूप हैं । परमात्मा की परा और अपरा प्रकृति सत्‌-असत्‌ से परे नहीं है, पर परमात्मा सत्‌-असत्‌ से परे भी हैं ।

ॐ तत्सत् !

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