॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।५।।
जो मान और मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति से होनेवाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्यनिरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो (अपनी दृष्टिसे) सम्पूर्ण कामनाओंसे रहित हो गये हैं? जो सुखदुःखरूप द्वन्द्वोंसे मुक्त हो गये हैं, ऐसे (ऊँची स्थितिवाले) मोहरहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद (परमात्मा) को प्राप्त होते हैं ।
व्याख्या—
जिस परमात्माको इसी अध्यायके प्रथम श्लोकमें ‘ऊर्ध्वमूलम्’ पदसे कहा गया तथा जिस परमपदरूपी परमात्माकी खोज करनेके लिये चौथे श्लोकमें प्रेरणा की गयी और आगे छठे श्लोकमें जिसकी महिमाका वर्णन किया गया है, उसी परमत्मस्वरूप परमपदको यहाँ ‘अव्ययम् पदम्’ कहा गया है । जो ऊँची स्थितिके साधक भक्त मान, मोह, ममता आदि दोषोंसे सर्वथा रहित हो जाते हैं, वे उस अविनाशी परमपदको अवश्य प्राप्त होते हैं, जिसे प्राप्त होनेपर जीव लौटकर नाशवान् संसारमें नहीं आता ।
ॐ तत्सत् !
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।५।।
जो मान और मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति से होनेवाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्यनिरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो (अपनी दृष्टिसे) सम्पूर्ण कामनाओंसे रहित हो गये हैं? जो सुखदुःखरूप द्वन्द्वोंसे मुक्त हो गये हैं, ऐसे (ऊँची स्थितिवाले) मोहरहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद (परमात्मा) को प्राप्त होते हैं ।
व्याख्या—
जिस परमात्माको इसी अध्यायके प्रथम श्लोकमें ‘ऊर्ध्वमूलम्’ पदसे कहा गया तथा जिस परमपदरूपी परमात्माकी खोज करनेके लिये चौथे श्लोकमें प्रेरणा की गयी और आगे छठे श्लोकमें जिसकी महिमाका वर्णन किया गया है, उसी परमत्मस्वरूप परमपदको यहाँ ‘अव्ययम् पदम्’ कहा गया है । जो ऊँची स्थितिके साधक भक्त मान, मोह, ममता आदि दोषोंसे सर्वथा रहित हो जाते हैं, वे उस अविनाशी परमपदको अवश्य प्राप्त होते हैं, जिसे प्राप्त होनेपर जीव लौटकर नाशवान् संसारमें नहीं आता ।
ॐ तत्सत् !
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