Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।७।।

हे कुन्तीनन्दन ! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करनेवाले रजोगुण को तुम रागस्वरूप समझो । वह कर्मों की आसक्ति से शरीरधारी को बाँधता है ।

व्याख्या—
रजोगुण रागस्वरूप है अर्थात्‌ किसी वस्तु, व्यक्ति आदि में प्रियता उत्पन्न होती है, वह प्रियता रजोगुण है । रजोगुण कर्मोंके संग (आसक्ति)-से मनुष्यको बाँधता है । अतः सात्त्विक कर्म भी संग होनेसे बाँधनेवाले हो जाते हैं । यदि संग न हो तो कर्म बन्धनकारक नहीं होते । इसलिये कर्मयोगसे मुक्ति हो जाती है; क्योंकि कर्मोंका और उनके फलोंका संग न होनेसे ही कर्मयोग होता है (गीता ६ । ४) ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment