यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥ ३५॥
जिस (तत्त्वज्ञान)-का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं
प्राप्त होगा और हे अर्जुन! जिस (तत्त्वज्ञान)-से तू सम्पूर्ण प्राणियोंको
नि:शेष भावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें
देखेगा।
व्याख्या—
तत्त्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें मोहकी सत्ता है
ही नहीं-‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । इसलिये तत्त्वज्ञान एक ही
बार होता है और सदाके लिये होता है । जैसे, पृथ्वीपर दिनके बाद रात होती
है, रातके बाद दिन होता है; परन्तु सूर्यमें रात आती ही नहीं । वहाँ
नित्य-निरन्तर दिनसे भी विलक्षण प्रकाश रहता है । ऐसे ही तत्त्वज्ञानरूप
सूर्यमें मोहरूप अन्धकारका प्रवेश कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही
नहीं, हो सकता ही नहीं । मोहकी सत्ता जीवकी दृष्टिमें है ।
परमात्माके अन्तर्गत जीव है-‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) और जीवके
अन्तर्गत जगत् है-‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । इसलिये साधक पहले
जगत्को अपनेमें देखता है-‘द्रक्ष्यस्यात्मनि’, फिर अपनेको परमात्मामें
देखता है-‘अथो मयि’ । जगत्को अपनेमें देखनेसे अहम् की सूक्ष्म सत्ता रहती
है । यह सूक्ष्म अहम् जन्म-मरण देने वाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक
मतभेद करानेवाला होता है । अपनेको परमात्मामें देखनेसे अहम्का सर्वथा नाश
हो जाता है और एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं रहता ।
ॐ तत्सत् !