Wednesday, 15 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.२५)


तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥ ३४॥

उस तत्त्वज्ञानको (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी (अनुभवी) ज्ञानी (शास्त्रज्ञ) महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।

व्याख्या—

तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीका वर्णन करते हुए भगवान्‌ मानो यह कहना चाहते हैं कि केवल गुरु बनानेसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती और केवल शिष्य बनानेसे गुरुका कर्तव्य पूरा नहीं होता । यदि कोई अनुभवी महापुरुषके पास जाकर उन्हें प्रणाम करे अर्थात्‌ अपने-आपको उनके समर्पित कर दे, उनकी आज्ञाके अनुसार काम करे और उनके सामने अपनी जिज~झासा प्रकट करे तो वे गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़े बिना तत्त्वज्ञानका उपदेश दे देंगे ।

जिससे तत्त्वज्ञानका उपदेश लिया जाय, उस महापुरुषका अनुभवी और शास्त्रज्ञ होना आवश्यक है । यदि वह अनुभवी तो हो पर शास्त्रज्ञ नहीं हो तो जिज्ञासुकी अनेक शंकाओंका समुचित समाधान नहीं कर पायेगा । यदि वह शास्त्रज्ञ तो हो, पर अनुभवी नहीं हो तो उसके वचन वैसे ठोस एवं प्रभावशाली नहीं होंगे, जिनसे जिज्ञासुको बोध हॊ जाय ।

अनुभवी और शास्त्रज्ञ-इन दोनोंमें भी महापुरुषका अनुभवी होना मुख्य है । अनुभवी महापुरुषके हृदयमें शास्त्र स्वतः प्रकट होते हैं । अनुभवी सन्तोंकी वाणीसे ही शास्त्र बनते हैं । उनकी वाणी स्वतः शास्त्रके अनुकूल होती है ।

ॐ तत्सत् !

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