Wednesday, 15 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.२६)

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥ ३५॥

जिस (तत्त्वज्ञान)-का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा और हे अर्जुन! जिस (तत्त्वज्ञान)-से तू सम्पूर्ण प्राणियोंको नि:शेष भावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा।

व्याख्या—

तत्त्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें मोहकी सत्ता है ही नहीं-‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । इसलिये तत्त्वज्ञान एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है । जैसे, पृथ्वीपर दिनके बाद रात होती है, रातके बाद दिन होता है; परन्तु सूर्यमें रात आती ही नहीं । वहाँ नित्य-निरन्तर दिनसे भी विलक्षण प्रकाश रहता है । ऐसे ही तत्त्वज्ञानरूप सूर्यमें मोहरूप अन्धकारका प्रवेश कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । मोहकी सत्ता जीवकी दृष्टिमें है ।

परमात्माके अन्तर्गत जीव है-‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) और जीवके अन्तर्गत जगत्‌ है-‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७ । ५) । इसलिये साधक पहले जगत्‌को अपनेमें देखता है-‘द्रक्ष्यस्यात्मनि’, फिर अपनेको परमात्मामें देखता है-‘अथो मयि’ । जगत्‌को अपनेमें देखनेसे अहम्‌ की सूक्ष्म सत्ता रहती है । यह सूक्ष्म अहम्‌ जन्म-मरण देने वाला तो नहीं होता, पर दार्शनिक मतभेद करानेवाला होता है । अपनेको परमात्मामें देखनेसे अहम्‌का सर्वथा नाश हो जाता है और एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं रहता ।

ॐ तत्सत् !

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