Wednesday, 15 February 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.२७)

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥ ३६॥

अगर तू सब पापियों से भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौका के द्वारा नि:सन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा।

व्याख्या—

संसारमें जितने पापी हैं, उन सब पापियोंमें भी जो सबसे अधिक पापी हैं, ऐसे महापापीको भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है । इसलिये किसी भी मनुष्यको अपने कल्याणके विषय में निराश नहीं होना चाहिये । मनुष्यमात्र ज्ञानप्राप्ति का अधिकारी है । ज्ञानकी प्राप्तिमें पाप बाधक नहीं हैं, प्रत्युत नाशवान्‌की कामना बाधक है (गीता ३ । ३७-४१) ।

दो विभाग हैं-जड़ और चेतन । ये दोनों विभाग अन्धकार और प्रकाशकी तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं । सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभाग में ही होती हैं । चेतन-विभाग में कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती । सम्पूर्ण पाप जड़-विभाग में ही हैं, चेतन-विभाग में नहीं । जड़ और चेतनके विभाग को अलग-अलग जानना ही ज्ञान है । इस ज्ञानरूपी अग्नि से सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ।

ॐ तत्सत् !

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