न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति॥ ३८॥
इस मनुष्यलोकमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला नि:सन्देह दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भलीभाँति सिद्ध हो गया है, (वह कर्मयोगी) उस तत्त्वज्ञानको अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है।
व्याख्या—
जिस तत्त्वज्ञानको पानेके लिये कर्मोंका त्याग करके अनुभवी और शास्त्रज्ञ महापुरुषकी शरणमें जाना पड़ता है (गीता ४ । ३४), वही तत्त्वज्ञान कर्मयोगीको सब कर्म करते हुए अपने-आपमें ही प्राप्त हो जाता है । तत्त्वज्ञानके लिये उसे कहीं जाना नहीं पड़ता, कोई दूसरा साधन नहीं करना पड़ता ।
ॐ तत्सत् !
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