Tuesday, 9 May 2017

गीता प्रबोधनी - बारहवाँ अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।१६।।

जो आकाङ्क्षा से रहित, बाहरभीतर से पवित्र, दक्ष,उदासीन, व्यथा से रहित और सभी आरम्भों का अर्थात् नये नये कर्मों के आरम्भ का सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।

व्याख्या—

भक्तका दर्शन, स्पर्श, भाषण दूसरों को शुद्ध करनेवाला होता है । उसके शरीर का स्पर्श करनेवाली हवा भी शुद्ध करनेवाली होती है । यद्यपि ऐसी शुद्धि ज्ञानयोगी महापुरुष में भी होती है, तथापि भक्त में आरम्भ से ही सब के हित का भाव विशेषरूप से रहनेके कारण उसमें विशेष शुद्धि होती है ।

भक्त ने करनेयोग्य काम कर लिया अर्थात्‌ भगवत्प्राप्तिरूप उद्देश्य पूरा कर लिया इसलिये वह दक्ष है । भक्त भोग तथा संग्रहके लिये किये जानेवाले सम्पूर्ण कर्मों का सर्वथा त्यागी होता है । उसके द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्म भगवान्‌ की प्रसन्नता के लिये ही होते हैं । संसार में किंचिन्मात्र भी आसक्ति न रहनेसे भक्त का एकमात्र भगवान्‌ में स्वतः-स्वभाविक प्रेम होता है ।

ॐ तत्सत् !

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