Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.२३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति।।२९।।

जो सम्पूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपनेआप को अकर्ता देखता (अनुभव करता) है, वही यथार्थ देखता है।

व्याख्या—

जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, वे सब-की-सब प्रकृतिविभाग में ही होती हैं । प्रकृतिके द्वारा होनेवाली क्रियाओं को ही गीता में कहीं गुणों से होनेवाली और कहीं इन्द्रियों से होनेवाली क्रियाएँ कहा गयी है; जैसे-सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं--‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’ (३ । २७); गुण ही गुणों में परत रहे हैं--‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (३ । २८); गुणों के सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं--‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति’ (१४ । २९); इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के विषयमें बरत रही हैं--‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते (५ । ९) आदि ।

तात्पर्य है कि क्रियामात्र प्रकृतिजन्य ही है । अतः प्रकृति कभी किंचिन्मात्र भी अक्रिय नहीं होती और पुरुषमें कभी किंचिन्मात्र भी क्रिया नहीं होती । इसलिये गीतामें आया है कि तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी ‘मैं’ (स्वयं) लेशमात्र भी कुछ नहीं करता ‘हूँ’ ऐसा अनुभव करता है--‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्यते तत्त्ववित्‌’ (५ । ८) स्वयं न करता है, न करवाता है-‘नैव कुर्वन्न कारयन्‌’ (५ । १३); यह पुरुष शरीरमें रहता हुअ भी न करता है, न लिप्त होता है-‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (१३ । ३१); जो आत्माको कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है--‘तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं......’ (१८ । १६) आदि ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment