Thursday, 11 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।।१५।।
  कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्विकं निर्मलं फलम् । 

रजसस्तुफलं दु:खमज्ञानं तमस:फलम् ॥१६॥   

रजोगुण के बढ़नेपर मरने वाला प्राणी मनुष्ययोनि में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़योनियों में जन्म लेता है।

विवेकी पुरुषों ने शुभ कर्म का तो सात्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख कहा है और तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।

  व्याख्या—

जिसने जीवनभर अच्छे कर्म किये हैं, जिसके अच्छे भाव रहे हैं, वह यदि अन्तकाल में रजोगुण के बढ़ने पर मर जाता है तो मनुष्ययोनि में जन्म लेने पर भी उसके आचरण, भाव अच्छे रहेंगे । इसी प्रकार अच्छे कर्म करनेवाला यदि अन्तकाल में तमोगुण के बढ़ने पर मर जाता है तो पशु, पक्षि आदि मूढ़योनि में जन्म लेने पर भी उसके आचरण, भाव अच्छे ही रहेंगे ।

रजोगुण में ‘राग’-अंश ही जन्म-मरण देनेवाला है, ‘क्रिया’- अंश नहीं । पदार्थ, क्रिया अथवा व्यक्ति, किसीमें भी राग हो जायगा तो वह मनुष्ययोनिमें जन्म लेगा । मनुष्य स्वाभाविक कर्मसंगी है; क्योंकि नये कर्म करने का अधिकार मनुष्ययोनि में ही है । 


 वास्तव में कर्म सात्विक-राजस-तामस नहीं होते, प्रत्युत कर्ता ही सात्विक-राजस-तामस होता है। जैसा कर्ता होता है, उसके द्वारा वैसे ही कर्म होते हैं, जैसे कर्म होते हैं, वैसा ही भाव दृढ़ होता है। जैसा भाव होता है, उसके अनुसार ही अन्तकालीन चिन्तन होता है। अन्तकालीन चिन्तन के अनुसार ही गति होती है।
 
ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment