Thursday, 11 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च । 
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥१३॥  
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् । 
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥१४॥ 
 
हे कुरुनन्दन! तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति तथा प्रमाद और मोह- ये वृत्तियाँ भी पैदा होती हैं। 
जिस समय सत्वगुण बढ़ा हो, उस समय यदि देहधारी मनुष्य मर जाता है तो वह उत्तमवेत्ताओं के निर्मल लोकों में जाता है। 
 
व्याख्या- भगवान पूर्वोक्त तीन श्लोकों में क्रमशः सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि के लक्षणों का वर्णन करके साधक को सावधान करते हैं कि गुणों के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही गुणों में होने वाली वृत्तियाँ उसे अपने में प्रतीत होती हैं। वास्तव में साधक का इन वृत्तियों के साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। गुण तथा गुणों की वृत्तियाँ प्रकृति का कार्य होने से परिवर्तनशील हैं और स्वयं परमात्मा का अंश होने से अपरिवर्तनशील है। परिवर्तनशील के साथ अपरिवर्तनशील का सम्बन्ध कैसे हो सकता है?  
  
गुणों से उत्पन्न होने वाली वृत्तियाँ कर्मों की अपेक्षा कमजोर नहीं है। सात्विक वृत्ति भी पुण्यकर्मों के समान ही श्रेष्ठ है। तात्पर्य यह हुआ कि शास्त्रविहित पुण्यकर्मों में भी भाव का ही महत्व है, पुण्यकर्म का नहीं पदार्थ, क्रिया, भाव और उद्देश्य-ये चारों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।  यदि उत्तमवेत्ता (विवेकवान्) मनुष्य सत्वगुण को अपना मानते हुए उसमें रमण न करे और भगवान के सम्मुख रहे तो वह सत्वगुण से भी असंग (गुणातीत) हो कर भगवान के परमधाम को चला जायगा, अन्यथा सत्वगुण का सम्बन्ध रहने पर वह ब्रह्मलोक तक के ऊँचे लोकों तक ही जायगा।

ॐ तत्सत् !

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