Tuesday, 9 May 2017

गीता प्रबोधनी - बारहवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।१८।।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।१९।।

जो शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है और शीतउष्ण (अनुकूलताप्रतिकूलता) तथा सुखदुःख में सम है एवं आसक्ति से रहित है, और जो निन्दास्तुति को समान समझनेवाला, मननशील, जिसकिसी प्रकार से भी (शरीरका निर्वाह होनेमें) संतुष्ट, रहने के स्थान तथा शरीर में ममताआसक्ति से रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।

व्याख्या—

इन दो श्लोकों में भगवान्‌ ने वे ही स्थल दिये हैं, जहाँ समता में कठिनता आती है । यदि इनमें समता हो जाय तो अन्य जगह समता होने में कठिनता नहीं प्रतीत होगी । अपने पर कोई असर न पड़ना ही समता है ।

यद्यपि भक्त की दृष्टि में भगवान्‌ के सिवाय दूसरी सत्ता होती ही नहीं, तथापि दूसरे लोगों की दृष्टि में वह शत्रु और मित्र में समभाव वाला दीखता है । शत्रुता-मित्रता का ज्ञान होने पर भी वह सम रहता है ।

भक्त सब प्रकारकी अनुकूलता-प्रतिकूलता में सम रहता है । उसका न तो अनुकूलता में राग होता है, न प्रतिकूलता में द्वेष होता है ।

ॐ तत्सत् !

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