Tuesday, 9 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.३७)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।५३।।
भक्त्या त्वनन्यया शक्यमहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।५४।।

जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकार का (चतुर्भुजरूपवाला) मैं न तो वेदोंसे, न तपसे, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ ।
परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार (चतुर्भुजरूपवाला) मैं अनन्यभक्ति से ही तत्त्वसे जाननेमें और (साकाररूप से) देखने में और प्रवेश(प्राप्त) करनेमें शक्य हूँ।

व्याख्या—

वेदाध्ययन, तप, दान, आदि कितनी ही महान्‍ क्रिया क्यों न हो, उससे भगवान्‌ को प्राप्त नहीं किया जा सकता । उन्हें तो अनन्यभक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है । अनन्यभक्ति है--केवल भगवान्‌ का ही आश्रय, सहारा हो और अपने बल का किंचिन्मात्र भी आश्रय न हो ।
ज्ञानमार्ग में तो केवल जानना और प्रवेश करना--ये दो होते हैं (गीता १८ । ५५), पर भक्तिमार्ग में जानना, देखना और प्रवेश करना--ये तीनों होते हैं । भक्तिसे भगवान्‌ के दर्शन भी हो सकते हैं--यह भक्तिकी विशेषता है । भक्तिसे समग्रकी प्राप्ति होती है ।

ॐ तत्सत् !

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