Thursday, 11 May 2017

गीता प्रबोधनी - चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट.२१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
  
समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्टाश्मकाञ्चन: । 
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति: ॥२४॥ 
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो: । 
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते ॥२५॥  
 
जो धीर मनुष्य दुःख-सुख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है; जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है; जो अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में सम रहता है; जो मित्र- शत्रु के पक्ष्ज्ञ में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।  
 
व्याख्या- 
यहाँ भगवान ने सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, निन्दा-स्तुति और मान-अपमान-ये आठ परस्पर विरुद्ध नाम लिये हैं, जिनमें साधारण मनुष्यों की तो विषमता हो ही जाती है। इन आठ कठिन स्थलों में जिसकी समता हो रखना सुगम हो जाता है। गुणातीत महापुरुष की इन आठों स्थलों में स्वतः स्वाभाविक समता रहती है।
 
ॐ तत्सत् !

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