॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।१।।
श्री भगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।२।।
जो भक्त इस प्रकार ( ग्यारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक के अनुसार) निरन्तर आप में लगे रहकर आप (सगुण-साकार)-- की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निर्गुण-निराकार की ही उपासना करते हैं; उन दोनों में से उत्तम योगवेत्ता कौन हैं ?
श्रीभगवान् बोले—
मुझमें मनको लगाकर नित्यनिरन्तर मुझमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी (सगुण-साकार) की उपासना करते हैं, वे मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।
व्याख्या—
यद्यपि ज्ञान और भक्ति—दोनों ही मनुष्य का दुःख दूर करने में समान हैं, तथापि ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की अधिक महिमा है । ज्ञान से तो अखण्डरस की प्राप्ति होती है, पर भक्तिसे अनन्तरस (प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम)-की प्राप्ति होती है । जैसे संसार में किसी वस्तु का ज्ञान होता है कि ‘ये रुपये हैं’ आदि,तो इस ज्ञान से केवल अज्ञान (अनजानपना) मिट जाता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान से केवल अज्ञान मिटता है । अज्ञान मिटने से दुःख, भय, जन्म-मरण- ये सब मिट जाते हैं । परन्तु भक्ति, ज्ञान से भी विलक्षण है । जैसे ‘ये रुपये हैं’ यह ज्ञान हो जानेपर अनजानपना मिट जाता है, पर उनको पाने का लोभ हो जाय कि ‘और मिले, और मिले’ तो उसमें एक विशेष रस मिलता है । वस्तुके आकर्षण में जो रस है वह रस वस्तु के ज्ञान में नहीं है । ऐसे ही भक्ति में एक विशेष रस है । ज्ञान का रस तो स्वयं लेता है, पर प्रेम का रस भगवान् लेते हैं । भगवान् ज्ञान के भूखे नहीं हैं, प्रत्युत प्रेम के भूखे हैं । अतः ‘प्रेम’ मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी वस्तु है !
ज्ञानमार्ग में सत् और असत् दोनों की मान्यता (विवेक) साथ-साथ रहनेसे असत् की अति सूक्ष्म सत्ता अर्थात् सूक्ष्म अहम् दूर तक साथ रहता है । यह सूक्ष्म अहम् मुक्त होने पर भी रहता है । इस सूक्ष्म अहम् के रहने से पुनर्जन्म तो नहीं होता, पर भगवान् से अभिन्नता नहीं होती और दार्शनिकों में तथा उनके दर्शनों में परस्पर मतभेद रहता है । परन्तु प्रेम का उदय होने पर भगवान् से अभिन्नता हो जाती है तथा सम्पूर्ण दार्शनिक मतभेद मिट जाते हैं ॥
ॐ तत्सत् !
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।१।।
श्री भगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।२।।
जो भक्त इस प्रकार ( ग्यारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक के अनुसार) निरन्तर आप में लगे रहकर आप (सगुण-साकार)-- की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निर्गुण-निराकार की ही उपासना करते हैं; उन दोनों में से उत्तम योगवेत्ता कौन हैं ?
श्रीभगवान् बोले—
मुझमें मनको लगाकर नित्यनिरन्तर मुझमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी (सगुण-साकार) की उपासना करते हैं, वे मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।
व्याख्या—
यद्यपि ज्ञान और भक्ति—दोनों ही मनुष्य का दुःख दूर करने में समान हैं, तथापि ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की अधिक महिमा है । ज्ञान से तो अखण्डरस की प्राप्ति होती है, पर भक्तिसे अनन्तरस (प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम)-की प्राप्ति होती है । जैसे संसार में किसी वस्तु का ज्ञान होता है कि ‘ये रुपये हैं’ आदि,तो इस ज्ञान से केवल अज्ञान (अनजानपना) मिट जाता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान से केवल अज्ञान मिटता है । अज्ञान मिटने से दुःख, भय, जन्म-मरण- ये सब मिट जाते हैं । परन्तु भक्ति, ज्ञान से भी विलक्षण है । जैसे ‘ये रुपये हैं’ यह ज्ञान हो जानेपर अनजानपना मिट जाता है, पर उनको पाने का लोभ हो जाय कि ‘और मिले, और मिले’ तो उसमें एक विशेष रस मिलता है । वस्तुके आकर्षण में जो रस है वह रस वस्तु के ज्ञान में नहीं है । ऐसे ही भक्ति में एक विशेष रस है । ज्ञान का रस तो स्वयं लेता है, पर प्रेम का रस भगवान् लेते हैं । भगवान् ज्ञान के भूखे नहीं हैं, प्रत्युत प्रेम के भूखे हैं । अतः ‘प्रेम’ मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी वस्तु है !
ज्ञानमार्ग में सत् और असत् दोनों की मान्यता (विवेक) साथ-साथ रहनेसे असत् की अति सूक्ष्म सत्ता अर्थात् सूक्ष्म अहम् दूर तक साथ रहता है । यह सूक्ष्म अहम् मुक्त होने पर भी रहता है । इस सूक्ष्म अहम् के रहने से पुनर्जन्म तो नहीं होता, पर भगवान् से अभिन्नता नहीं होती और दार्शनिकों में तथा उनके दर्शनों में परस्पर मतभेद रहता है । परन्तु प्रेम का उदय होने पर भगवान् से अभिन्नता हो जाती है तथा सम्पूर्ण दार्शनिक मतभेद मिट जाते हैं ॥
ॐ तत्सत् !
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