॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।१७।।
उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नाम से कहा गया है । वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सब का भरणपोषण करता है।
व्याख्या—
पुरुषोत्तमको ‘अन्य’ कहनेका तात्पर्य है कि क्षर और अक्षर तो लौकिक हैं, पर पुरुषोत्तम्को ‘अन्य’ कहनेका तात्पर्य है कि क्षर और अक्षर तो अलौकिक हैं, पर पुरुषोत्तम दोनोंसे विलक्षण अर्थात् अलौकिक हैं । अतः परमात्मा विचारके विषय नहीं हैं, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वास्के विषय हैं । परमात्माके होनेमें भक्त, सन्त-महात्मा, वेद और शास्त्र ही प्रमाण हैं । ‘अन्य’ का स्पष्टीकरण भगवान् ने अगले श्लोक में किया है ।
भगवान् मात्र प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं । पालन-पोषण करने में भगवान् किसी के साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते । वे भक्त-अभक्त, पापी-पुण्यात्मा, आस्तिक-नास्तिक आदि सब का समानरूप से पालन-पोषण करते हैं । प्रत्यक्ष देखने में भी आता है कि भगवान् द्वारा रचित सृष्टि में सूर्य सब को समानरूप से प्रकाश देता है, पृथ्वी सब को समानरूप से धारण करती है, वायु श्वास लेने के लिये सब को समानरूप से प्राप्त होती है, अन्न-जल सबको समानरूप से तृप्त करते हैं, इत्यादि । जब भगवान् के द्वारा रचित सृष्टि भी इतनी निष्पक्ष, उदार है तो फिर भगवान् स्वयं कितने निष्पक्ष, उदार होंगे !
आधुनिक वेदान्तियों ने ईश्वर को कल्पित बताकर साधक-जगत् की बड़ी हानि की है ! उन्हें इस बात का भय है कि ईश्वर को मानने से अपने अद्वैत सिद्धान्त में कमी आ जायगी ! परन्तु ईश्वर किस की कल्पना है--इसका उत्तर उनके पास नहीं है । वास्तव में सत्ता एक ही है । दूसरी सत्ता का तात्पर्य संसार से है, ईश्वर से नहीं; क्योंकि संसार ‘पर’ है और ईश्वर ‘स्व’ (स्वकीय) है । अपना राग मिटाये बिना दूसरी सत्ता नहीं मिटेगी । राग तो अपना है, पर मान लिया ईश्वरको कल्पित ! अतः ईश्वरको कल्पित न मानकर अपना राग मिटाना चाहिये । ईश्वर कल्पित नहीं है, प्रत्युत अलौकिक है । वह मायारूपी धेनुका बछड़ा नहीं है, प्रत्युत साँड़ है ! उपनिषद्में भी आया है-मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तो महेश्वरम्’ (श्वेताश्वतर० ४ । १०) ‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति महेश्वरको समझना चाहिये । आजतक जिस ईश्वरके असंख्य भक्त हो चुके हैं, वह कल्पित कैसे हो सकता है ?’
ॐ तत्सत् !
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।१७।।
उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नाम से कहा गया है । वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सब का भरणपोषण करता है।
व्याख्या—
पुरुषोत्तमको ‘अन्य’ कहनेका तात्पर्य है कि क्षर और अक्षर तो लौकिक हैं, पर पुरुषोत्तम्को ‘अन्य’ कहनेका तात्पर्य है कि क्षर और अक्षर तो अलौकिक हैं, पर पुरुषोत्तम दोनोंसे विलक्षण अर्थात् अलौकिक हैं । अतः परमात्मा विचारके विषय नहीं हैं, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वास्के विषय हैं । परमात्माके होनेमें भक्त, सन्त-महात्मा, वेद और शास्त्र ही प्रमाण हैं । ‘अन्य’ का स्पष्टीकरण भगवान् ने अगले श्लोक में किया है ।
भगवान् मात्र प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं । पालन-पोषण करने में भगवान् किसी के साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते । वे भक्त-अभक्त, पापी-पुण्यात्मा, आस्तिक-नास्तिक आदि सब का समानरूप से पालन-पोषण करते हैं । प्रत्यक्ष देखने में भी आता है कि भगवान् द्वारा रचित सृष्टि में सूर्य सब को समानरूप से प्रकाश देता है, पृथ्वी सब को समानरूप से धारण करती है, वायु श्वास लेने के लिये सब को समानरूप से प्राप्त होती है, अन्न-जल सबको समानरूप से तृप्त करते हैं, इत्यादि । जब भगवान् के द्वारा रचित सृष्टि भी इतनी निष्पक्ष, उदार है तो फिर भगवान् स्वयं कितने निष्पक्ष, उदार होंगे !
आधुनिक वेदान्तियों ने ईश्वर को कल्पित बताकर साधक-जगत् की बड़ी हानि की है ! उन्हें इस बात का भय है कि ईश्वर को मानने से अपने अद्वैत सिद्धान्त में कमी आ जायगी ! परन्तु ईश्वर किस की कल्पना है--इसका उत्तर उनके पास नहीं है । वास्तव में सत्ता एक ही है । दूसरी सत्ता का तात्पर्य संसार से है, ईश्वर से नहीं; क्योंकि संसार ‘पर’ है और ईश्वर ‘स्व’ (स्वकीय) है । अपना राग मिटाये बिना दूसरी सत्ता नहीं मिटेगी । राग तो अपना है, पर मान लिया ईश्वरको कल्पित ! अतः ईश्वरको कल्पित न मानकर अपना राग मिटाना चाहिये । ईश्वर कल्पित नहीं है, प्रत्युत अलौकिक है । वह मायारूपी धेनुका बछड़ा नहीं है, प्रत्युत साँड़ है ! उपनिषद्में भी आया है-मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तो महेश्वरम्’ (श्वेताश्वतर० ४ । १०) ‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति महेश्वरको समझना चाहिये । आजतक जिस ईश्वरके असंख्य भक्त हो चुके हैं, वह कल्पित कैसे हो सकता है ?’
ॐ तत्सत् !
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