॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।२।।
उस संसारवृक्षकी गुणों (सत्त्व, रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषयरूप कोंपलोंवाली शाखाएँ नीचे, मध्य में और ऊपर सब जगह फैली हुई हैं । मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बाँधनेवाले मूल भी नीचे और ऊपर (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं।
व्याख्या—
प्रथम श्लोक में आये ‘ऊर्ध्वमूलम्’ पद का तात्पर्य है-परमात्मा, जो संसार के रचयिता तथा उसके मूल आधार हैं; और यहाँ ‘मूलानि’ पदका तात्पर्य है-तादात्म्य, ममता और कामनारूप मूल, जो संसारमें मनुष्य को बाँधते हैं । साधक को इन मूलों का तो छेदन करना है और ऊर्ध्वमूल परमात्मा का आश्रय लेना है ।
ॐ तत्सत् !
गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।२।।
उस संसारवृक्षकी गुणों (सत्त्व, रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई तथा विषयरूप कोंपलोंवाली शाखाएँ नीचे, मध्य में और ऊपर सब जगह फैली हुई हैं । मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बाँधनेवाले मूल भी नीचे और ऊपर (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं।
व्याख्या—
प्रथम श्लोक में आये ‘ऊर्ध्वमूलम्’ पद का तात्पर्य है-परमात्मा, जो संसार के रचयिता तथा उसके मूल आधार हैं; और यहाँ ‘मूलानि’ पदका तात्पर्य है-तादात्म्य, ममता और कामनारूप मूल, जो संसारमें मनुष्य को बाँधते हैं । साधक को इन मूलों का तो छेदन करना है और ऊर्ध्वमूल परमात्मा का आश्रय लेना है ।
ॐ तत्सत् !
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