Saturday, 13 May 2017

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।३।। 
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।४।।

इस संसारवृक्ष का जैसा रूप देखने में आता है, वैसा यहाँ (विचार करनेपर) मिलता नहीं क्योंकि इसका न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है । इसलिये इस दृढ़ मूलों वाले संसाररूप अश्वत्थवृक्ष को दृढ़ असङ्गतारूप शस्त्र के द्वारा काटकर –
उसके बाद उस परमपद (परमात्मा) की खोज करनी चाहिये जिसको प्राप्त होने पर मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिससे अनादिकाल से चली आनेवाली यह सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है, उस आदिपुरुष परमात्मा के ही मैं शरण हूँ।

व्याख्या—

भगवान्‌ आदिमें भी हैं, अन्तमें भी हैं और मध्यमें भी हैं (गीता १० । २०, ३२); परन्तु संसार न आदिमें है, न अन्तमें है और न मध्यमें ही है अर्थात्‌ संसारकी सत्ता ही नहीं है-‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २ । १६) । अतः एक भगवान्‌के सिवाय कुछ भी नहीं है ।
इस श्लोकमें आये ‘छित्त्वा’ पदका तात्पर्य काटना अथवा नाश (अभाव) करना नहीं है, प्रत्युत सम्बन्ध-विच्छेद करना है । कारण कि यह संसार-वृक्ष भगवान्‌की अपरा प्रकृति होनेसे अव्यय है ।
संसार रागके कारण ही दीखता है । जिस वस्तुमें राग होता है, उसी वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता दीखती है । यदि राग न रहे तो नेत्रोंसे संसारकी सत्ता दीखते हुए भी महत्ता नहीं रहती । अतः ‘असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा’ पदोंका तात्पर्य है- संसारके रागको सर्वथा मिटा देना अर्थात्‌ अपने अन्तःकरणमें एक परमात्माके सिवाय अन्य किसीसे सम्बन्ध न मानना, सृष्टिमात्रकी किसी भी वस्तुको अपनी और अपने लिये न मानना । वास्तवमें संसारकी सत्ता बन्धनकारक नहीं है, प्रत्युत उससे रागपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धनकारक है । सत्ता बाधक नहीं है, महत्ता बाधक है । हम जिस वस्तुको महत्ता देते हैं, वही बाँधनेवाली हो जाती है । महत्ता हमारी दी हुई है, उसमें है नहीं । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेपर संसारका संसाररूपसे अभाव हो जाता है और वह भगवद्‌रूपसे दीखने लगता है-‘वासुदेवः सर्वम्‌’ ।
संसार नित्यनिवृत्त है, इसलिये उसका त्याग होता है-‘असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा’ और परमात्मा नित्यप्राप्त हैं, इसलिये उनकी खोज होती है-‘ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्‌’ । निर्माण और खोज-दोनोंमें बहुत अन्तर है । निर्माण उस वस्तुका होता है, जिसका पहलेसे अभाव है और खोज उस वस्तुकी होती है, जो पहलेसे ही विद्यमान है । परमात्मा नित्यप्राप्त और स्वतःसिद्ध हैं, इसलिये उनकी खोज होती है, निर्माण नहीं होता । जब साधक परमात्माकी सत्ताको स्वीकार करता है, तब खोज होती है । खोज करनेके दो प्रकार हैं-एक तो कण्ठी कहीं रखकर भूल जाय तो हम जगह-जगह उसकी खोज करते हैं और दूसरा, कण्ठी गलेमें ही हो पर न दीखनेसे बहम हो जाय कि कण्ठी खो गयी तो हम उसकी खोज करते हैं । परमात्मा गलेमें पड़ी कण्ठीकी खोजके समान हैं । तात्पर्य है कि वास्तवमें परमात्मा खोये नहीं हैं, पर संसारकी ओर दृष्टि (सम्मुखता) रहनेसे हमारी दृष्टि परमात्माकी ओर नहीं जाती । उधर दृष्टि न जाना ही उसका खोना है ।
परमात्मा कभी अप्राप्त हुए नहीं, अप्राप्त हैं नहीं, अप्राप्त हो सकते ही नहीं । उनकी अप्राप्ति नहीं हुई है, प्रत्युत विस्मृति हुई है, उनसे विमुखता हुई है, उनकी अप्राप्तिका वहम हुआ है । परमात्माकी खोज करनेका उपाय है-अप्राप्त संसारका त्याग करना अर्थात्‌ उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना, उसे अस्वीकार करना । अतः संसारके त्यागमें ही परमात्माकी खोज निहित है-‘अतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः’ (श्रीमद्भा० १० । १४ । २८) ।
संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर साधक मुक्त हो जाता है । मुक्त होने पर संसार की कामना तो मिट जाती है, पर प्रेम की भूख नहीं मिटती । ब्रह्मसूत्र में आया है-‘मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात्‌ (१।३।२) ‘उस प्रेमस्वरूप भगवान्‌को मुक्त पुरुषों के लिये भी प्राप्तव्य बताया गया है’ । तात्पर्य है कि स्वरूप जिसका अंश है, उस अंशी (परमात्मा)-के प्रेमकी प्राप्तिमें ही मानव-जीवनकी पूर्णता है । अंश (स्वरूप)-में निजानन्द (अखण्ड आनन्द) है और अंशीमें परमानन्द (अनन्त आनन्द) है । जो मुक्ति में नहीं अटकता, उसमें सन्तोष नहीं करता, उसे प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम (अनन्त आनन्द)-की प्राप्ति होती है-‘मद्भक्तिं लभते पराम्‌’ (गीता १८ । ५४) । इसलिये प्रस्तुत श्लोकमें संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करने अर्थात्‌ मुक्त होनेके बाद परमात्मा की खोज करके उनकी शरण ग्रहण करने की बात कही गयी है ।

ॐ तत्सत् !

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