॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।
अभ्यास से शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफलत्याग से तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।
व्याख्या—
अभ्यास, शास्त्रज्ञान और ध्यान-ये तीनों तो करणसापेक्ष हैं, पर कर्मफलत्याग करणनिरपेक्ष है । वास्तव में ये चारों ही साधन श्रेष्ट हैं और उन साधकों के लिये हैं, जिनका उद्देश्य त्यागका है । परन्तु कर्मफलत्याग को श्रेष्ट बताने का कारण यह है कि लोगोंमें इस साधन के प्रति हेयबुद्धि है, जबकि त्यागमें कर्मफल का त्याग ही श्रेष्ट है (गीता १८ । ११) ।
इस श्लोकमें आये चार साधनोंके अन्तर्गत द्सवें श्लोकमें आये ‘मदर्थमपि कर्माणि’ (भगवान्के लिये कर्म करना) अर्थात् भक्तिको नहीं लिया है । इसका कारण यह है कि साधनकी पूर्णता हो जाती है । अतः भक्ति और त्याग-दोनों ही श्रेष्ट हैं ।
कर्मफलत्याग का अर्थ है-कर्मफल की इच्छा का त्याग । इच्छा भीतर होती है और फलत्याग बाहर होता है । फलत्याग करने पर भी भीतर से उसकी इच्छा रह सकती है । अतः साधक का उद्देश्य कर्मफल की इच्छा के त्याग का रहना चाहिये । इच्छा का त्याग होने से जन्म-मरणका कारण ही नहीं रहता । मुक्ति वस्तु के त्याग से नहीं होती, प्रत्युत इच्छा के त्याग से होती है । इसलिये गीता में फलेच्छा के त्यागपर अधिक जोर दिया गया है ।
किसी साधन की सुगमता अथवा कठिनता साधक की रुचि और उद्देश्यपर निर्भर करती है । रुचि और उद्देश्य एक भगवान् का होने से साधन सुगम होता है । परन्तु रुचि संसार की और उद्देश्य भगवान् का होने से साधन कठिन हो जाता है ।
ॐ तत्सत् !
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।१२।।
अभ्यास से शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफलत्याग से तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।
व्याख्या—
अभ्यास, शास्त्रज्ञान और ध्यान-ये तीनों तो करणसापेक्ष हैं, पर कर्मफलत्याग करणनिरपेक्ष है । वास्तव में ये चारों ही साधन श्रेष्ट हैं और उन साधकों के लिये हैं, जिनका उद्देश्य त्यागका है । परन्तु कर्मफलत्याग को श्रेष्ट बताने का कारण यह है कि लोगोंमें इस साधन के प्रति हेयबुद्धि है, जबकि त्यागमें कर्मफल का त्याग ही श्रेष्ट है (गीता १८ । ११) ।
इस श्लोकमें आये चार साधनोंके अन्तर्गत द्सवें श्लोकमें आये ‘मदर्थमपि कर्माणि’ (भगवान्के लिये कर्म करना) अर्थात् भक्तिको नहीं लिया है । इसका कारण यह है कि साधनकी पूर्णता हो जाती है । अतः भक्ति और त्याग-दोनों ही श्रेष्ट हैं ।
कर्मफलत्याग का अर्थ है-कर्मफल की इच्छा का त्याग । इच्छा भीतर होती है और फलत्याग बाहर होता है । फलत्याग करने पर भी भीतर से उसकी इच्छा रह सकती है । अतः साधक का उद्देश्य कर्मफल की इच्छा के त्याग का रहना चाहिये । इच्छा का त्याग होने से जन्म-मरणका कारण ही नहीं रहता । मुक्ति वस्तु के त्याग से नहीं होती, प्रत्युत इच्छा के त्याग से होती है । इसलिये गीता में फलेच्छा के त्यागपर अधिक जोर दिया गया है ।
किसी साधन की सुगमता अथवा कठिनता साधक की रुचि और उद्देश्यपर निर्भर करती है । रुचि और उद्देश्य एक भगवान् का होने से साधन सुगम होता है । परन्तु रुचि संसार की और उद्देश्य भगवान् का होने से साधन कठिन हो जाता है ।
ॐ तत्सत् !
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