Sunday, 7 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.२८)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।।४०।।

हे सर्वस्वरुप ! आपको आगे से नमस्कार हो ! पीछे से नमस्कार हो ! सब ओर से ही नमस्कार हो ! हे अनन्तवीर्य ! असीम पराक्रमवाले आपने सबको (एकदेश में) समेट रखा है; अतः सब कुछ आप ही हैं ।

व्याख्या—

ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, रुद्र, आदित्य, वसु, साध्यगण, विश्‍वेदेव, अश्‍वनीकुमार, मरुद्गण, पितृगण, सर्प, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, असुर, ऋषि-महर्षि, सिद्धगण, वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, सूर्य आदि और इनके सिवाय भीष्म, द्रोण, कर्ण, जयद्रथ आदि समस्त राजालोग-ये सब-के-सब दिव्य विराट्‌स्वरूप के ही अंग हैं । इतना ही नहीं, अर्जुन, संजय, धृतराष्ट्र तथा कौरव और पाण्डवसेना भी उसी विराट्‌रूपके ही अंग हैं-- ‘सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः’ । तात्पर्य है कि जड़-चेतन, स्थावर-जंगमरूप से जो कुछ भी देखने, सुनने तथा सोचने में आ रहा है, वह सब अविनाशी भगवान्‌ ही हैं ।

ॐ तत्सत् !

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