॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।३।।
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्तिस्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ । उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है ।
व्याख्या—
जीव जब तक मुक्त नहीं होता, तब तक प्रकृति के अंश कारणशरीर से उसका सम्बन्ध बना रहता है और वह महाप्रलय में कारणशरीर सहित ही प्रकृति में लीन होता है । जब उस जीवके कर्म परिपक्व होकर फल देनेके लिये उन्मुख होते हैं, तब महासर्ग के आदि में भगवान् उसका प्रकृति के साथ पुनः विशेष सम्बन्ध स्थापित कर देते हैं ।
ॐ तत्सत् !
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।३।।
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्तिस्थान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ । उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है ।
व्याख्या—
जीव जब तक मुक्त नहीं होता, तब तक प्रकृति के अंश कारणशरीर से उसका सम्बन्ध बना रहता है और वह महाप्रलय में कारणशरीर सहित ही प्रकृति में लीन होता है । जब उस जीवके कर्म परिपक्व होकर फल देनेके लिये उन्मुख होते हैं, तब महासर्ग के आदि में भगवान् उसका प्रकृति के साथ पुनः विशेष सम्बन्ध स्थापित कर देते हैं ।
ॐ तत्सत् !
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