॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।१६।।
इस संसार में क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) -- ये दो प्रकार के पुरुष हैं । सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है।
व्याख्या—
पहले छ्ठे श्लोक में और फिर बारहवें से पन्द्रहवें श्लोक तक भगवान् ने अलौकिक तत्त्व का वर्णन किया कि स्वतन्त्र सत्ता अलौकिक की ही है, लौकिक की नहीं । लौकिक की सत्ता अलौकिक से ही है । अलौकिक से ही लौकिक प्रकाशित होता है । लौकिक में जो प्रभाव देखने में आता है, वह सब अलौकिक का ही है । अब सोलहवें श्लोक में भगवान् ‘लोके’ पद से ‘लौकिक तत्त्व’ का वर्णन करते हैं ।
क्षर (जगत्) तथा अक्षर (जीव)-दोनों लौकिक हैं, और भगवान् इस दोनोंसे विलक्षण अर्थात् अलौकिक हैं-‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’ (गीता १५ । १७) । कर्मयोग और ज्ञानयोग-ये दो योगमार्ग भी लौकि हैं-‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा......’ (गीता ३ । ३) । क्षरको लेकर कर्मयोग और अक्षरको लेकर ज्ञानयोग चलता है; परन्तु भक्तियोग अलौकिक है, जो भगवान् को लेकर चलता है । सातवें अध्यायमें वर्णित अपरा प्रकृति को यहाँ ‘क्षर’ नाम से और परा प्रकृति को यहाँ ‘अक्षर’ नाम से कह गया है ।
ॐ तत्सत् !
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