Sunday, 7 May 2017

गीता प्रबोधनी - गयारहवाँ अध्याय (पोस्ट.२९)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।४१।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।।४२।।

आपकी महिमा और स्वरूपको न जानते हुए मेरे सखा हैं ऐसा मानकर मैंने प्रमाद से अथवा प्रेम से हठपूर्वक (बिना सोचेसमझे) हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे ! इस प्रकार जो कुछ कहा है और हे अच्युत ! हँसीदिल्लगी में, चलतेफिरते,सोतेजागते, उठतेबैठते, खातेपीते समय में अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदि के सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है; हे अप्रमेयस्वरुप ! वह सब आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ अर्थात् आपसे क्षमा माँगता हूँ ।

व्याख्या—

अर्जुनका भगवान्‌ के प्रति सखाभाव था, परन्तु भगवान्‌ के ऐश्‍वर्य को देखने से वे अपना सखाभाव भूल जाते हैं और भगवान्‌ को देखकर आश्‍चर्य करते हैं, भयभीत होते हैं ! उनके मन में यह सम्भावना ही नहीं थी कि जिनको मैं सखा मानता हूँ, वे भगवान्‌ ऐसे हैं ।

ॐ तत्सत् !

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