Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.२२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।२८।।

क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखनेवाला मनुष्य अपनेआप से अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परमगति को प्राप्त हो जाता है ।

व्याख्या—

जो मनुष्य स्थावर-जंगम, चर-अचर आदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे परिपूर्ण परमात्मतत्त्व के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव करता है, वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता । शरीरके जन्म, मृत्यु, रोग आदि विकारोंको अपने विकार मानना ही अपने द्वारा अपनी हत्या करना अर्थात्‍ अपनेको जन्म-मृत्युके चक्करमें डालना है ।

वास्तवमें सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकों में आत्माका ही वर्णन है, परन्तु ‘परमेश्‍वर’ तथा ‘ईश्‍वर’ नाम आने से इन श्लोकों की व्याख्या में परमात्मा का वर्णन किया गया है; क्योंकि आत्मा का परमात्मा से साधर्म्य है (गीता १३ । २२) ।

ॐ तत्सत् !

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