Saturday, 13 May 2017

गीता प्रबोधनी पन्द्रहवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
 
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥६॥ 
उस परमपद को न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है। 

व्याख्या-
यह छठा श्लोक पाँचवें और सातवें श्लोकों को जोड़ने वाला है। इन श्लोकों में भगवान यह बताते हैं कि वह अविनाशी पद मेरा ही धाम है, जो मुझ से अभिन्न है और जीव भी मेरा सनातमन अंश होने के कारण मुझ से अभिन्न है। अतः भगवान का जो धाम है, वहीं हमारा धाम है। इसी कारण उस धाम की प्राप्ति होने पर फिर लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता। जब तक हम अपने उस धाम में नहीं जायँगे, तब तक हम मुसाफिर की तरह अनेक योनियों में तथा अनेक लोकों में घूमते ही रहेंगे, कहीं भी ठहर नहीं सकेंगे। यदि हम ऊँचे-से-ऊँचे ब्रह्मलोक में भी चले जायँ तो वहाँ से भी लौटकर आना पड़ेगा[1]। कारण कि यह सम्पूर्ण संसार (मात्र ब्रह्माण्ड) परदेश है, स्वदेश नहीं, यह पराया घर है, अपना घर नहीं। विभिन्न योनियों और लोकों में हमारा भटकना तभी बन्द होगा, जब हम अपने असली घर में पहुँच जायँगे। 
परमपद को न तो आधिभौतिक प्रकाश (सूर्य, चन्द्र आदि) प्रकाशित कर सकता है, न आधिदैविक प्रकाश (नेत्र, मन, बुद्धि, वाणी आदि) ही प्रकाशित कर सकता है। कारण कि यह स्वयं प्रकाश है। इसमें प्रकाश्य-प्रकाशक का भेद नहीं है।

ॐ तत्सत् !

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