॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।१५।।
जिससे किसी प्राणी को उद्वेग नहीं होता और जिसको खुद भी किसी प्राणी से उद्वेग नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेगसे रहित है, वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या—
भगवान् के सिवाय अन्य की सत्ता मानने से ही उद्वेग, ईर्ष्या, भय आदि होता हैं । भक्त की दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय अन्य कोई सत्ता है ही नहीं, फिर वह किससे उद्वेग, ईर्ष्या, भय आदि करे और क्यों करे ?
ॐ तत्सत् !
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।१५।।
जिससे किसी प्राणी को उद्वेग नहीं होता और जिसको खुद भी किसी प्राणी से उद्वेग नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेगसे रहित है, वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या—
भगवान् के सिवाय अन्य की सत्ता मानने से ही उद्वेग, ईर्ष्या, भय आदि होता हैं । भक्त की दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय अन्य कोई सत्ता है ही नहीं, फिर वह किससे उद्वेग, ईर्ष्या, भय आदि करे और क्यों करे ?
ॐ तत्सत् !
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