॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।।४३।।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।४४।।
आप ही इस चराचर संसारके पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओं के महान् गुरु हैं । हे अनन्त प्रभावशाली भगवन् ! इस त्रिलोकी में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो हो ही कैसे सकता है !
इसलिये शरीर से लम्बा पड़कर, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को मैं प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ । जैसे पिता पुत्रके, मित्र मित्र के और पति पत्नी के अपमान को सह लेता है, ऐसे ही (आप मेरे द्वारा किया गया अपमान) सहने में समर्थ हैं अर्थात् क्षमा करने में समर्थ हैं ।
ॐ तत्सत् !
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।।४३।।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।४४।।
आप ही इस चराचर संसारके पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओं के महान् गुरु हैं । हे अनन्त प्रभावशाली भगवन् ! इस त्रिलोकी में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो हो ही कैसे सकता है !
इसलिये शरीर से लम्बा पड़कर, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को मैं प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ । जैसे पिता पुत्रके, मित्र मित्र के और पति पत्नी के अपमान को सह लेता है, ऐसे ही (आप मेरे द्वारा किया गया अपमान) सहने में समर्थ हैं अर्थात् क्षमा करने में समर्थ हैं ।
ॐ तत्सत् !
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