॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।२।।
इस ज्ञान का आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, वे महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते।
व्याख्या—
कारणशरीरके सम्बन्धसे ‘निर्विकल्प स्थिति’ होती है और कारणशरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर (स्वयंमें) ‘निर्विकल्प बोध’ होता है । निर्विकल्प स्थिति तो सविकल्पमें बदल सकती है, पर निर्विकल्प बोध सविकल्पमें कभी नही बदलता । तात्पर्य है कि निर्विकल्प स्थितिमें तो परिवर्तन होता है, पर निर्विकल्प बोधमें कभी परिवर्तन नहीं होता, वह महासर्ग अथवा महाप्रलय होनेपर भी सदा ज्यों-का-त्यों रहता है ।
महासर्ग और महाप्रलय प्रकृति में होते हैं । प्रकृति से अतीत तत्त्व (परमाँत्मा)-की प्राप्ति होने पर महासर्ग और महाप्रलय का कोई असर नहीं पड़ता; क्योंकि ज्ञानी महापुरुष का प्रकृति से सम्बन्ध ही नहीं रहता । प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होने को ‘आत्यन्तिक प्रलय’ भी कहा गया है । तात्पर्य है कि प्रकृति के कार्य शरीरको पकड़नेसे मनुष्य परतन्त्र हो जाता है, जन्म-मरणमें पड़ जाता है; परन्तु शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर वह स्वतन्त्र हो जाता है, निरपेक्ष-जीवन हो जाता है, सदाके लिये जन्म-मरणसे छूट जाता है । वह परमात्माकी सधर्मताको प्राप्त हो जाता है अर्थात् जैसे परमात्मा सत्-चित्-आनन्दरूप हैं, ऐसे ही वह ज्ञानी महापुरुष भी सत्-चित्-आनन्दरूप हो जाता है, जो कि वास्तवमें वह पहले से ही था !
ॐ तत्सत् !
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।२।।
इस ज्ञान का आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, वे महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते।
व्याख्या—
कारणशरीरके सम्बन्धसे ‘निर्विकल्प स्थिति’ होती है और कारणशरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर (स्वयंमें) ‘निर्विकल्प बोध’ होता है । निर्विकल्प स्थिति तो सविकल्पमें बदल सकती है, पर निर्विकल्प बोध सविकल्पमें कभी नही बदलता । तात्पर्य है कि निर्विकल्प स्थितिमें तो परिवर्तन होता है, पर निर्विकल्प बोधमें कभी परिवर्तन नहीं होता, वह महासर्ग अथवा महाप्रलय होनेपर भी सदा ज्यों-का-त्यों रहता है ।
महासर्ग और महाप्रलय प्रकृति में होते हैं । प्रकृति से अतीत तत्त्व (परमाँत्मा)-की प्राप्ति होने पर महासर्ग और महाप्रलय का कोई असर नहीं पड़ता; क्योंकि ज्ञानी महापुरुष का प्रकृति से सम्बन्ध ही नहीं रहता । प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होने को ‘आत्यन्तिक प्रलय’ भी कहा गया है । तात्पर्य है कि प्रकृति के कार्य शरीरको पकड़नेसे मनुष्य परतन्त्र हो जाता है, जन्म-मरणमें पड़ जाता है; परन्तु शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर वह स्वतन्त्र हो जाता है, निरपेक्ष-जीवन हो जाता है, सदाके लिये जन्म-मरणसे छूट जाता है । वह परमात्माकी सधर्मताको प्राप्त हो जाता है अर्थात् जैसे परमात्मा सत्-चित्-आनन्दरूप हैं, ऐसे ही वह ज्ञानी महापुरुष भी सत्-चित्-आनन्दरूप हो जाता है, जो कि वास्तवमें वह पहले से ही था !
ॐ तत्सत् !
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