Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।६।।

इच्छा , द्वेष , सुख, दुःख, संघात, चेतना (प्राणशक्ति) और धृति -- इन विकारोंसहित यह क्षेत्र संक्षेप से कहा गया है।

व्याख्या—

पाँचवें श्लोकमें भगवान्‌ने समष्टि संसारका वर्णन किया और यहाँ व्यष्टि शरीरके विकारोंका वर्णन करते हैं । क्षेत्रके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख आदि विकार क्षेत्रज्ञमें होते हैं (गीता १३ । २०) । ये सभी विकार तादात्म्य (चिज्जड़ग्रन्थि)-के जड़-अंश में रहते हैं ।

यहाँ भगवान्‌ ने चौबीस तत्त्वों वाले शरीर को तथा उसके सात विकारों को एतत् (यह) कहा है । तात्पर्य है कि स्वयं क्षेत्रसे मिला हुआ नहीं है, प्रत्युत उससे सर्वथा अलग है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों ही शरीर ‘एतत्‌’ पद के अन्तर्गत होने से हमारा स्वरूप नहीं हैं । यहाँ विशेष ध्यान देने की बात है कि जब अहंकार का कारण ‘महत्तत्त्व’ और ‘मूल प्रकृति’ को भी ‘एतत्‌’ शब्द से कह दिया, तो फिर अहंकारके ‘एतत्‌’ होने में कहना ही क्या है ! अहम्‌ से समीप महत्तत्त्व है और महत्तत्त्वसे समीप प्रकृति है, वह प्रकृति भी ‘एतत्‌ क्षेत्रम्‌’ में है । तात्पर्य है कि अहम्‌ हमारा रूप है ही नहीं । जो साधक स्वयंको और अहम्‌ (क्षेत्र)-- को अलग-अलग जान लेता है, उसका फिर कभी जन्म नहीं होता और वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है (गीता १३ । २३) ।

ॐ तत्सत् !

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