Wednesday, 10 May 2017

गीता प्रबोधनी - तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट.२५)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।३१।।

हे कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष स्वयं अनादि और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है । यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है ।

व्याख्या—

जैसे मकान में रहते हुए भी हम मकान से अलग हैं इसे ही शरीर में रहते हुए मानने पर भी हम स्वयं शरीर से अलग हैं । स्वयं अनादि है, पर शरीर आदिवाला है । स्वयं निर्गुण है, पर शरीर गुणमय है । स्वयं परमात्मा है, पर शरीर अनात्मा है । स्वयं अव्यय है, पर शरीर नाशवान्‌ है । इसलिये अज्ञानी मनुष्य के द्वारा स्वयं को शरीर में स्थित माननेपर भी वास्तवमें वह शरीरमें स्थित नहीं है अर्थात्‌ शरीरसे सर्वथा असम्बद्ध है--‘न करोति न लिप्यते’ । कारण कि शरीर का सम्बन्ध तो संसार के साथ है, पर स्वयं का सम्बन्ध परमात्मा के साथ है । अतः वास्तव में स्वयं कभी शरीरस्थ हो सकता ही नहीं; परन्तु इस वास्तविकता की तरफ ध्यान न देने के कारण मनुष्य को शरीरस्थ मान लेता है ।

‘न करोति न लिप्यते’--यह साधनजन्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः स्वाभाविक है । तात्पर्य है कि स्वयं में लेशमात्र भी कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व नहीं है-यह स्वतःसिद्ध बात है । इसमें कोई पुरुषार्थ नहीं है अर्थात्‌ इसके लिये कुछ करना नहीं है । अतः कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व को मिटाना नहीं है, प्रत्युत् इनको अपने में स्वीकार नहीं करना है, इनके अभाव का अनुभव करना है; क्योंकि वास्तव में ये अपने में हैं ही नहीं ! इसलिये साधक को अपने में निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व का अनुभव करना चाहिये । अपने में निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्‍तृत्व का अनुभव होना ही जीवन्मुक्ति है ।

ॐ तत्सत् !

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