Sunday, 7 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)


सञ्जय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।९।।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।।१०।।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।।११।।
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।१२।।

सञ्जय बोले –

हे राजन् ! ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुनको परम ऐश्वर विराट् रूप दिखाया।
‘जिनके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तरह के अद्भुत दर्शन हैं, अनेक दिव्य आभूषण हैं और हाथों में उठाये हुए अनेक दिव्य आयुध हैं तथा जिन के गले में दिव्य मालाएँ हैं, जो दिव्य वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीर पर दिव्य चन्दन आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय,अनन्तरूपवाले तथा चारों तरफ मुखों वाले देव (अपने दिव्य स्वरूप) --को भगवान् ने दिखाया।‘
अगर आकाश में एक साथ हजारों सूर्यों का उदय हो जाय, तो भी उन सब का प्रकाश मिलकर उस महात्मा (विराट् रूप परमात्मा) के प्रकाश के समान शायद ही हो अर्थात् नहीं हो सकता ।

व्याख्या—

भगवान्‌ को ‘महायोगेश्‍वर’ कहने का तात्पर्य है कि भगवान्‌ सम्पूर्ण योगों के ईश्‍वर हैं । ऐसा कोई भी योग नहीं है, जिसके ईश्‍वर (स्वामी) भगवान्‌ न हों । सब योग भगवान्‌ के ही अन्तर्गत हैं ।
यदि हजारों सूर्यों का प्रकाश हो जाय तो भी वह है तो भौतिक ही ! परन्तु भगवान्‌ का प्रकाश दिव्य है, भौतिक नहीं । सूर्य में जो तेज है, वह भी भगवान्‌ से ही आया है (गीता १५ । १२) ।

ॐ तत्सत् !

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