Tuesday, 24 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०८)



कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥



कर्मो की सिद्धि (फल) चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं; क्योंकि इस मनुष्यलोक में कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है।

व्याख्या- मनुष्यलोक में सकाम कर्मों से होने वाली सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है; परन्तु परिणाम में वह बन्धन कारक होती है। जैसे, एलोपैथिक दवा जल्दी असर करती है, पर परिणाम में वह शरीर के लिये हानिकारक होती है। परन्तु आयुर्वेदिक दवा देर से असर करती है, पर परिणाम में वह लाभदायक होती है। जनकादि महापुरुषों ने निष्काम कर्म (कर्मयोग) से संसिद्धि (सम्यक सिद्धि अर्थात मुक्ति) प्राप्त की थी- कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः’[4]। सकाम कर्मों से होने वाली सिद्धि नाशवान होती है, और निष्काम कर्मों से होने वाली सिद्धि अविनाशी होती है।

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