किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥ १६॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:॥ १७॥
कर्म क्या है और अकर्म क्या है—इस प्रकार इस विषयमें विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। अत: वह कर्म-तत्त्व मैं तुझे भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभ (संसार-बन्धन)-से मुक्त हो जायगा।
कर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्मका तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मोंकी गति गहन है अर्थात् समझनेमें बड़ी कठिन है।
व्याख्या—
कामनाके कारण क्रिया ही फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है । कामना बढ़नेपर ‘विकर्म’ (पाप) होते हैं । कामना का सर्वथा नाश होनेपर सभी कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं अर्थात् फल देने वाले नहीं होते ।
ॐ तत्सत् !
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