Tuesday, 17 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०१)

श्रीभगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ १॥
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप॥ २॥
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥ ३॥

श्रीभगवान् बोले —
मैंने इस अविनाशी योग (कर्मयोग)-को सूर्य से कहा था। फिर सूर्य ने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकु से कहा।
हे परन्तप ! इस तरह परम्परासे प्राप्त इस कर्म-योगको राजर्षियोंने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जाने के कारण वह योग इस मनुष्यलोक में लुप्तप्राय हो गया।
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है।

व्याख्या—

पूर्वपक्ष- अव्यय (नित्य) तो साध्य होता है, साधन कैसे अव्यय होगा ?

उत्तरपक्ष- साधक ही साधन होकर साध्यमें लीन होत है । अतः साधक, साधन और साध्य-तीनों ही एक होनेसे अव्यय हैं; परन्तु मोहके कारण तीनों अलग-अलग दीखते हैं ।

ॐ तत्सत् !

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