Thursday, 19 January 2017

गीता प्रबोधनी - चौथा अध्याय (पोस्ट.०२)

अर्जुन उवाच

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वत:।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥ ४॥

श्रीभगवानुवाच

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥ ५॥
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥ ६॥

अर्जुन बोले—

आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है; अत: आपने ही सृष्टि के आरम्भ में (सूर्यसे) यह योग कहा था—यह बात मैं कैसे समझूँ ?

श्रीभगवान् बोले—

हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सब को मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता।

मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।

ॐ तत्सत् !

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