Monday, 16 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२७)

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥ ४०॥
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥ ४१॥

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस कामना के वास-स्थान कहे गये हैं। यह कामना इन (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि)-के द्वारा ज्ञानको ढककर देहाभिमानी मनुष्य को मोहित करती है।

इसलिये हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! तू सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान् पापी कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।

व्याख्या—

काम पाँच स्थानों में दीखता है-

(१) विषयों में (गीता ३ । ३४),
(२) इन्द्रियों में,
(३) मन में,
(४) बुद्धि में और
(५) अहम्‌ (जड़-चेतनके तादात्म्य)-में (गीता २ । ५९) ।

इन पाँच स्थानों में दीखने के कारण ये पाँचों काम के वासस्थान कहे गये हैं । मूल में काम ‘अहम्‌’ में ही रहता है (गीता ३ । ४२-४३) ।

संसार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है-यह ज्ञान है । सब कुछ भगवान्‌ ही हैं-यह विज्ञान है । काम साधकको न तो ‘ज्ञान’ प्राप्त करने देता है, न ‘विज्ञान’ ।

ॐ तत्सत् !

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