धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥ ३८॥
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥ ३९॥
जैसे धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जैसे जेर से गर्भ ढका रहता है, ऐसे ही उस कामना के द्वारा यह (ज्ञान अर्थात् विवेक) ढका हुआ है।
हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होने वाले और विवेकियों के कामनारूप नित्य वैरी के द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है।
ॐ तत्सत् !
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