मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:॥ ३०॥
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा:।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि:॥ ३१॥
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस:॥ ३२॥
तू विवेकवती बुद्धि के द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मेरे अर्पण करके कामनारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्धरूप कर्तव्य-कर्म को कर ।
जो मनुष्य दोष-दृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस (पूर्वश्लोकमें वर्णित) मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ।
परन्तु जो मनुष्य मेरे इस मतमें दोष-दृष्टि करते हुए इसका अनुष्ठान नहीं करते, उन सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और अविवेकी मनुष्योंको नष्ट हुए ही समझो अर्थात् उनका पतन ही होता है ।
व्याख्या—
यदि साधक भगवन्निष्ट है तो उसे सम्पूर्ण कर्म भगवान् के अर्पित करने चाहिये । अर्पण करने का तात्पर्य है-अपने लिये कोई कर्म न करके केवल भगवान् की प्रसन्नता के लिये ही सब कर्म करना ।
भगवान् का मत है-मिलने तथा बिछुड़नेवाली कोई भी वस्तु (पदार्थ और क्रिया) अपनी तथा अपने लिये नहीं है । भगवान् का मत ही वास्तविक सिद्धान्त है, जिसका अनुसरण करके मात्र मनुष्य मुक्त हो सकते हैं ।
ॐ तत्सत् !
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