श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥ ३५॥
अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।
व्याख्या—
वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार निष्कामभावसे अपने-अपने कर्तव्यका पालन करना मनुष्यका ‘स्वधर्म’ है और जो उसके लिये निषिद्ध है, वह ‘परधर्म’ है । जिनमें दूसरेके अहितका भाव होता है, वे चोरी, हिंसा आदि किसीके भी स्वधर्म नहीं हैं, प्रत्युत कुधर्म अथवा अधर्म हैं ।
प्रत्येक धर्ममें कुधर्म, अधर्म और परधर्म-ये तीनों रहते हैं; जैसे- दूसरेके अनिष्टका भाव, कूटनीति आदि ‘धर्ममें कुधर्म’ है । यज्ञमें पशुबलि देना आदि ‘धर्ममें अधर्म’ है । जो अपनेलिये निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका ‘धर्ममें परधर्म’ है । कुधर्म, अधर्म और परधर्मसे कल्याण नहीं होता । कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग और दूसरेका वर्तमानमें और भविष्यमें हित होता हो ।
ॐ तत्सत् !
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