इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥ ३४॥
इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें (प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें) मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें) विघ्न डालनेवाले शत्रु हैं।
व्याख्या—
भूलसे अपने सुख-दःखका कारण दूसरेको माननेसे ही राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं । यदि अन्तःकरणमें राग-द्वेष उत्पन्न हो जाँय तो उनके वशीभूत होकर कोई क्रिया नहीं करनी चाहिये; क्योंकि क्रिया करनेसे राग-द्वेष दृढ़ हो जाते हैं ।
साधक राग-द्वेषके वशीभूत भी न हो और उनको अपनेमें भी न माने । राग-द्वेष आगन्तुक दोष हैं । हमें इनके आने-जानेका ज्ञान होता है; अतः हम इनसे अलग हैं ।
ॐ तत्सत् !
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