Thursday, 12 January 2017

गीता प्रबोधनी - तीसरा अध्याय (पोस्ट.२५)

अर्जुन उवाच

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥ ३६॥

श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥ ३७॥

अर्जुन बोले—

हे वार्ष्णेय ! फिर यह मनुष्य न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती लगाये हुए की तरह किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है?

श्रीभगवान् बोले—

रजोगुणसे उत्पन्न यह काम अर्थात् कामना (ही पापका कारण है)। यह काम ही क्रोध (-में परिणत होता) है। यह बहुत खाने-वाला और महापापी है। इस विषयमें तू इसको ही वैरी जान।

व्याख्या—

जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय-यह ‘काम’ अर्थात्‌ कामना है । किसी भी क्रिया, वस्तु और व्यक्तिका अच्छा लगना अथवा उससे कुछ भी सुख चाहना ‘काम’ है । इस कामरूप एक दोषमें अनन्त पाप भरे हुए हैं । अतः जबतक मनुष्यके भीतर काम है, तबतक वह सर्वथा निर्दोष, निष्पाप नहीं हो सकता । कामनाके सिवाय पापोंका अन्य कोई कारण नहीं है । तात्पर्य है कि मनुष्यसे न तो ईश्वर पाप कराता है, न भाग्य पाप कराता है, न समय पाप कराता है, न परिस्थिति पाप कराती है, न कलियुग पाप कराता है, प्रत्युत मनुष्य स्वयं ही कामनाके वशीभूत होकर पाप करता है ।

ॐ तत्सत् !

No comments:

Post a Comment