Sunday, 7 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतोदीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।।१७।।

मैं आपको किरीट (मुकुट), गदा, चक्र, (तथा शङ्ख और पद्म) धारण किये हुए देख रहा हूँ। आपको तेजकी राशि, सब ओर प्रकाश करनेवाले, देदीप्यमान अग्नि तथा सूर्य के समान कान्तिवाले, नेत्रोंके द्वारा कठिनता से देखे जानेयोग्य और सब तरफ से अप्रमेयस्वरूप देख रहा हूँ।

व्याख्या—

भगवान्‌ के द्वारा प्रदत्त दिव्यदृष्टि से भी अर्जुन भगवान्‌ के विराट्‌रूप को देखने में पूरे समर्थ नहीं हो रहे हैं-‘दुर्निरीक्षम्‌’ । इससे सिद्ध होता है कि भगवान्‌ की दी हुई शक्ति से भी भगवान्‌को पूरा नहीं जान सकते । इतना ही नहीं, भगवान्‌ भी अपने को पूरा नहीं जानते, यदि पूरा जान जायँ तो वे अनन्त कैसे रहेंगे ?

ॐ तत्सत् !

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