Sunday, 7 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।।१६।।

हे विश्वरूप ! हे विश्वेश्वर ! आपको मैं अनेक हाथों, पेटों, मुखों और नेत्रोंवाला तथा सब ओर से अनन्त रूपोंवाला देख रहा हूँ । मैं आपके न आदि को, न मध्य को और न अन्त को ही देख रहा हूँ।

व्याख्या—

भगवान्‌ के एक अंश में भी अनन्तता है । भगवान्‌ साकार हों या निराकार, सगुण हों या निर्गुण, बड़े-से-बड़े या छोटे-से-छोटे, उनका अनन्तपना ज्यों-का-त्यों रहता है ।

ॐ तत्सत् !

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