Sunday, 7 May 2017

गीता प्रबोधनी - ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥


त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।१८।।

आप ही जाननेयोग्य परम अक्षर (अक्षरब्रह्म) हैं, आप ही इस सम्पूर्ण विश्वके परम आश्रय हैं, आप ही सनातनधर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं -- ऐसा मैं मानता हूँ।

व्याख्या—

यहाँ ‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्‌’ पदोंसे निर्गुण-निराकार का, ‘त्वमस्य विश्‍वस्य परं निधानम्‌’ पदों से सगुण-निराकार का और ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता’ पदों से सगुण-साकारका वर्णन हुआ है । ये सब मिलकर भगवान्‌का समग्ररूप है, जिसे जान लेने पर फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता (गीता ७ । २) ।

ॐ तत्सत् !

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